Thursday, September 15

करिश्माई व्यक्तित्व वाले जॉब्स

जब स्टीव जॉब्स ने अपनी कॉलेज की पढ़ाई बीच में छोड़ी थी तो शायद ही किसी को कोई फर्क पड़ा हो लेकिन अब जब उन्होंने एप्पल के सीईओ पद को छोड़ा है तो सारी दुनिया हिल गई है और बाजार में भूकंप सा आ गया है।

केवल एक सेमेस्टर के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले स्टीव को प्रतिभा का धनी छात्र माना जाता था। स्टीव ७० के दशक में पढ़ाई करने के बजाय अध्यात्म की तलाश में भारत आ गए और जब वे अमेरिका वापस लौटे तो बौद्ध बन चुके थे हालांकि उनके पिता एक सीरियाई मुसलमान थे।

लगभग चार साल के कम समय में ही आईपैड और आईफोन से दुनिया में छा जाने वाले एप्पल का दिल, दिमाग और आत्मा जॉब्स को ही माना जाता है। दुनिया के दूसरे सीईओ की तरह टाई और कोर्ट के बजाय वे पूरी बांह की काली टी शर्ट और जींस पहनना पसंद करते हैं। जॉब्स ने १९७६ में अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर एप्पल कम्प्यूटर को शुरू किया था।

अथक मेहनत से कंपनी तो जम गई लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि जॉब्स का कंपनी के साथ बने रहना मुश्किल हो गया और अंतत: १९८५ में उन्हें एप्पल कम्प्यूटर को छोड़ देना पड़ा। लेकिन उनका जाना कंपनी के लिए नुकसान दायक सिद्ध हुआ और जितनी तरक्की कंपनी ने उनके नेतृत्व में की जॉब्स के बाद वह तरक्की थमने लगी।

इसी बीच माइक्रोसॉफ्ट को टक्कर देने के लिए एप्पल को जॉब्स की जरूरत महसूस हुई और उन्हें १२ साल बाद एक बार फिर से १९९७ में एप्पल में वापस बुला लिया गया। उनके नेतृत्व में कंपनी ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ी और बाजार में मैकबुक और मैक पीसी नाम के उत्पाद उतारे। इन उत्पादों के बाद कंपनी की प्रसिद्धि और बाजार दोनों में ही काफी इजाफा हुआ।

अपनी दूसरी पारी की शुरू करने के १० बाद जॉब्स को उस समय भारी सफलता मिली जब एप्पल ने आईफोन का निर्माण कर दिया। इसके बाद तो जॉब्स और कंपनी के रूतबे में अचानक से ही बहुत बढ़ोतरी हुई। कुछ लोगों ने तो आईफोन के निर्माण को तकनीकी क्रांति की संज्ञा दे दी और यह बात कुछ हद तक सही भी थी क्योंकि केवल बात और मैसेज तक सीमित रहने वाला मोबाइल फोन एक चलता-फिरता कम्प्यूटर जो बन गया था

लेकिन तकनीकी क्षेत्र का यह व्यक्ति अपने स्वास्थ्य से हार गया। लीवर और कैंसर से ग्रसित होने के बाद जॉब्स ने कंपनी के सीईओ पद से इस्तीफा दे दिया। जॉब्स अपने कार्यकाल के दौरान कंपनी से वेतन के रूप में केवल एक डॉलर की राशि लेते रहे हैं, हालांकि उनके समस्त खर्चे कंपनी ही उठाती रही है।

बीमारी का असर उनके व्यक्तित्व पर भी पड़ा और वे एक जिद्दी नेता बन गए जो हर हाल में अपने एजेंडे को पूरा करना चाहता है। इसे उनकी मेहनत का ही परिणाम कहा जा सकता है कि आज एप्पल दुनिया का सबसे ब्रांड बन गया है।

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